होने लगते हैं
जब हम अधिक सभ्य
और आधुनिक
भूलने लगते हैं
अपनी मातृभाषा
और उसके सरोकार
और हम करने लगते है
स्थापित उसके स्थान पर
प्रतिस्थापनी भाषा
ठीक वैसे ही
अच्छे जलस्रोत की आस में
नदी के उद्गम को छोड़
चले जाते है
हम उससे बहुत दूर
क्योंकि यह भी सच है
अनुदित नहीं होती
मातृभाषाएँ
वरन अन्तस की आवाज
बन प्रसरित होती है
सहज ही लोक तक
जिसे बोलने और समझने में
महसूस किया जाता है गर्व
यद्यपि समस्याओं को जानने
समझने के लिये आवश्यक होता है
उसका बुनियादी ढांचा
उसके लिए विद्वता से अधिक
आवश्यक होता है
व्यकितयों का मौलिक होना
जिसमे टिका होता है
किसी भी भाषा का
मज़बूत एवं टिकाऊ वितान
Wednesday, 27 February 2019
**** जब हम अधिक होने लगते हैं***
Monday, 18 February 2019
***** ईश्वर की भूख हड़ताल*****
भूख हड़ताल पर है
मेरा और तेरा ईश्वर
इसीलिए नहीं सुनता
तेरी और मेरी
तू करता रह मन्दिरों में
अर्चन पूजन
और मैं करता रहूं
मस्जिदों के नक्काशीदार
गुम्बदों के बीच
न तो तेरे मंदिर में
अर्चन पूजन से
टूटेगी उसकी हड़ताल
न मेरे मास्जिद में पढ़ते
कलमें से
यदि सच में तुड़वानी ही है
उसकी हड़ताल तो
तुम्हे करने होंगे
उसके द्वारा बनाये गये
नियमो का पालन
तुम्हे छोड़ने होगे भेदभाव के
पापाचार
और अपनाना होगा
समरसता का उसका सिद्धान्त
तभी हो सकोगे तोड़ने में
कामयाब
ईश्वर की भूख हड़ताल
Sunday, 17 February 2019
XXX वे जो सोये हुए हैंxxx
वे जो सोये
हुए हैं
उनसे कहो
स्वप्न देखे
वे जो जागे
हुए है
उनसे कहो शीध्र
निकल पड़े.
और वे जो खाली
पेट सो जाने को
मजबूर हैं
उनसे कहो
उम्मीद न छोड़े
वे जो दिन रात
खेतो में हल
चलाने को उत्सुक
रहते है
उनसे कहो
उन्ही के हौसलों से
दुनिया आबाद है
और वे जो मैले कुचैले फटे
हाथ छिपा रहें हैं
उनसे कहो
हाथों को छुपायें नहीं
क्योकि दुनिया में
इनसे खूबसूरत
कुछ भी नही है
और जो स्वांग भरते है
अपनी श्रेष्ठता व बहादुरी का
उनसे कहो
उनकी श्रेष्ठता
जुगुनुओं के
प्रकाश में ही
प्रचारित प्रसारित होती है
सूर्य के प्रकाश में
उनका कहीं
अता पता नही होता
Saturday, 9 February 2019
*****शायद वे तोड़ना चाहते हैं*****
शायद वे तोड़ना चाहते हैं
तुम्हारी हड्डियां
शायद उन्हे जाननी हो
तुम्हारी हड्डियों की
मज़बूती
या फिर उन्हे सता रहा हो
तुम्हारी ताकतवर
हहुियो का भय
या फिर मिटा देना
चाहते हो
भय और हड्डियों के
बीच के फासले
और बिखेर देना चाहते हों
फिजाओं तक समरसता की
खुशबू
जिनसे लाभान्वित हो सकें
आने वाली सभ्यताएं
और उनको मानने वाले
सभ्य लोग
और हतोत्साहित हो सके
दुष्टता की पोषक
सभ्यताएं
प्रद्युम्न कुमार सिंह
*****उन्हे मालूम है*****
उन्हे मालूम है
शिक्षित और शिक्षा की बारीकियां
इसीलिए वे निरंतर करते है
उनमे कटौती
जिन्हें समझना
सहज नही होता
जैसे सहजरूप से
नहीं समझी जा सकती
कुंजड़े की डांडी
मारने की कला
बनिये के नफ़े की गणित
जालसाज़ का जाली वक्तव्य
मित्रता के पीछे छिपाया गया
शत्रुता का खंजर
वाग्जाल के पीछे
छिपी नशंसता
सौम्यता के पीछे खड़ी
अराजकता
वैसे ही आसानी से
नहीं समझी जा सकती
शिक्षा में खर्च कटौती की
असली वजह
Friday, 8 February 2019
***** प्रेम*****
प्रेम !
एक एहसास है
पूर्ण होने का
मात्र पा लेना ही
प्रेम नहीं है
उत्सर्ग भी प्रेम ही है
यद्यपि धरती और आकाश
कभी नहीं मिलते
एक दूसरे से
लेकिन आज भी
उनके प्रेम को
आदर्श मानते हैं लोग
हिमालय कभी भी
नहीं पहुंचता समुद्र तक
फिर भी उसका प्रेम
नदियों के रूप में
अनवरुत पहुंचता है
उस तक
सूरज बहुत दूर होता है
धरती से
फिर भी तपिश के रूप में
धरती के सुख दुःख में
साथ रहता है
खुलेतौर पर प्रकृति
कभी भी नहीं करती
अपने प्रेम का इज़हार
फिर भी पातों पर मोती
डालकर
बनाती है अपने प्रेम को
चिरन्तन
क्योंकि प्रेम होता ही ऐसा
सम्भव नही होता
जिसे किसी परिधि में
बांध पाना
Saturday, 2 February 2019
****मासूकाओं सी मासूम होती है****
मासूकाओं सी
मासूम होती है
उत्कंठाएँ
बना लेती है
आसानी से
मस्तिष्क प्रमस्तिष्क के
कोने में जगह
और आडोलित करतीं हैं
अन्तः से वाह्य तक
प्रश्न उठाते प्रश्नों को
बेदखल कर देना चाहती हैं
सीमाओं सीमा से
और प्रदान करती हैं
उठने की क्षमताएं
इसके थकन से पूर्व
क्योंकि मासूकाओं सी
मासूम होती हैं
उत्कंठाएं
जिन्हे रोकना खुद को
रोकने जैसा होता है