आज भी हैं
उनके पास
कुछ मायावी जिन्न
जो समझते हैं
उनकी उंगलियों की भाषा
और होठों की
मुस्कान के शब्द
और तत्पर रहते हैं
परिन्दों से उड़ने के लिए
वे परखते हैं
समय समय पर शब्दों की
तीक्ष्णता और उनके प्रहार
जिससे दुरुस्त किया जा सके
प्रयोग से पूर्व
यद्यपि वे करते तयशुदा
समय में
निशाने के साथ संधान
और पा लेते हैं
कुछ थोथी उपलब्धियां
जिनका गाथाएं गाते हैं दामोदर बने
चारणवृन्द
खुश हो जिन्हे वितरित करते
बख्शीस में कुछ जागीरें
और वसूलते हैं समय समय पर
राजस्व की तयशुदा किश्ते
जिन्हे देकर लोग चुकता करते हैं
अपना कर्ज
इस तरह वे बने रहते हैं
पीढी दर पीढी
गुलाम
जिसे ढोने को विवश होती है
उनकी आने वाली पुश्तें ।
Wednesday, 24 April 2019
****मायावी जिन्न*****
Thursday, 18 April 2019
****शाख से टूटे पत्ते की तरह*****
उन्हे आता है
कतरों कतरों में बांटने का
हुनर
इसीलिए वे करते हैं
हमेशा अलग डालों से पत्ते
और हर बार कर देते हैं
वही पुरानी भूल
जिसमें बनी रहती है
हुचने की पूर्ण सम्भावना
इस तरह वे लगे रहते हैं
शिद्दत के साथ
कार्य की पूर्ति में
हमें तो डर है कि
एक दिन भारी न पड़ जाय
उन्ही पर
उन्ही का हुनर
और बांट दे उन्हे भी
कतरों के रूप में
यद्यपि बहुत से लोग
नही रखेंगे
इससे इत्फाक
बावजूद इसके दुहरता रहेगा इतिहास
घूमेगा समय का पहिया
और बदलेगा मौसम का मिजाज़
तब बंटा होगा
कतरों कतरों में गणितों का
हिसाब किताब
समय के स्यापे में
तब्दील हो चुका होगा
दमकता हुआ चेहरा
एकदम आकर्षण विहीन
झांईदार झुर्रियों में
शाख से टूटे पत्ते की तरह
Tuesday, 16 April 2019
*****बदनाम थे गिरगिट*****
बदनाम थे
गिरगिट
रंग बदलने की
कला से
पर वे विवश थे
कला के प्रदर्शन को
क्योंकि वे प्रकृति के
अद्भुत कलाकार थे
यद्यपि मौकापरस्ती से
बहुत दूर थे
फिर भी बदनाम थे
गिरगिट
खतरा ही था
उनके रंग बदलने का
सम्भावित कारण
इसीलिए समय समय पर
परखते रहे वे
रंगों के मिजाज़
और लोग करते रहे
उन्हे रंग परिवर्तक कहकर
अकारण बदनाम
बावजूद इसके उन्होने कभी
नहीं माना बुरा
ना ही कभी दुःखी हुए
किन्तु आज दुःख के
साथ साथ
आक्रोशित भी हैं
गिरगिट
मानव की रंग बदलने की
फितरत देखकर
क्योंकि रंग बदलना
शामिल नहीं था
मानव की आदत में
Monday, 15 April 2019
**** केन के पथ पर*****
केन के पथ पर
कल मैने
केन के सारस को देखा
उमड़ते दर्द को
हाल बेहाल देखा
डग भरते कदमों का
ठहराव देखा
सुगठित जीवन का प्रथम
बिखराव देखा
ठिठके थे कदम जहां पर
वहीं से चलता जीवन
उद्दाम देखा
फिजाओं में खुशबू घोलता
अरूणिम गुलाब देखा
उघड़ती रहीं एक एक करके
बीते लम्हों की स्मृतियां
मानों खिलता हुआ
कचनार देखा
समेट रहा था रश्मियों को
दिनमान धीरे धीरे
जैसे जिन्दगी उदास रही हो
जीवन की खिली हुई
पंखुड़ियां
पीड़ा को भी मात देता ऐसा
चरित्र नायाब देखा
उठायेे हुए सिर पर वेदना की
भारी गठरी
बांटता था फिर भी
खुशियों के अवशेष क्षण
ऐसा रौबीला इक
इंसान देखा
बाकी थी चन्द सांसे ही
उसकी
लड़ रहा था केन सा
पूरी ताकत से साथ
Friday, 12 April 2019
****आसान कहां है रावण बनना*****
आसान कहां है
रावण बनना
जिसमें अहंकार था
तो पश्चाताप भी था
वासना थी
तो संयम भी था
शक्ति का प्रमाद था
तो सहमति का इंतजार भी
इच्छा थी
तो संकल्प भी था
जीवित थी सीता
यह राम की शक्ति थी,
पर पवित्र रहीं सीता
ये रावण की मर्यादा थी
रावण में घमण्ड था
अपनी शक्ति का
रखता था
दस दस चेहरे
सर्वदा सम्मुख
क्या आपने कभी महसूसा है ?
जलते हुए रावण का दुःख
जो होता है बार बार
प्रश्न की मुद्रा में ?
तमाशा देखती भीड़ से वह
पूंछता है
बस एक ही सवाल
तुममें से है क्या कोई राम ?
मृत हो चुका है रावण का
अभिमान
फिर भी शेष है
आज भी उसका दंश
स्तब्ध है लंका
वीरान है कोट के परकोटे
छिन्न भिन्न हो चुकी हैं
उत्साह की उमंगे
डूब चुकी है अंधेरे में
रावण की वैभवशाली लंका
शान्त हो चुका है उसके
डंके का स्वर
फैली हुई है
कुछ चरागों की थोड़ी रोशनी
घर के भेदी के आंगन में
और बैठे हैं विजयी राम
रणनीति निर्मित करते हुए
सिन्धु तट पर जैसे कभी
बैठे थे
सेतु निर्माण के हेतु
चिन्तन की मुद्रा में
सुबह के इंतजार में है
विभीषण
मिल सके जिससे
पारितोषिक
उसकी भ्रातृभक्ति का
उहापोह में है राम
और पूंछतें हैं
सौमित्र से बार बार
सहयोगियों की कुशल-क्षेम
और महसूते है
राजा और रंक के बीच का
अन्तर
आज व्यग्र हैं लक्ष्मण
राम और राजाराम के
व्यवहार पर
आखिर क्यों ?बदल जाती है
नियति
पद और प्रतिष्ठा पाकर
व्यक्ति क्यों कर देता है
समर्पित
दायित्व के समक्ष निज
कर्तव्य को
वे कुछ कहना चाहते हैं
पर रोक देती हैं
कुछ कहने से पूर्व ही
उनकी भ्रातृभक्ति
खत्म होता है रात्रि का
अंधेरा
प्रकट होता है नव करजाल लेकर
सूर्य
और भर देता है दुनिया में
अपनी रश्मियों का उजास
राम निभाते हैं अपना वचन
और करते है
विभीषण का राज्याभिषेक
वनवास त्याग
करते हैं लंका में प्रवेश
और ठहरते हैं
राजमहल के विशेष कक्ष में
भेजते हैं
अपने अहम का समाचार
देने के लिए
सेवक को
अशोक वाटिका
मारा गया है रावण,
राम ने मारा है
रावण
सीता ख़ामोश हैं
बस निहारती है वह
लंका से अशोक वाटिका का पथ
जिससे आया था
संदेशवाहक के रूप में
वीर हनुमान
उन्हे है आश्चर्य !
राम के व्यवहार से
जो अब वनवासी से
बन चुके हैं सम्राट
और राजा होकर भेजते है
अपना दूत
वे नहीं जानना चाहते
पत्नी का संताप
कैसे रही ?
और क्या बीता उस पर?
अश्रुधार में डूबे गये थे
उनके नेत्र
समझ नहीं सके जिसे
पवनपुत्र हनुमान
कह नहीं पाये पिता
वाल्मीकि ।
सीता के मन में थी
उम्मीद
ससम्मान राम के मिलने की
लेकिन वे तो अब राजा थे
वह नहीं जानती थी
अन्तर होता है राजा
और पति में
वे चाहती थी राम को
मिलाना
अतीत की स्मृतियों से
जो रही परछाई की तरह
सदा उनके साथ
वे मिलाना चाहती थी
अपने राम को
उन अनुचरियों से
जो डराती थी
समय समय पर उन्हे
किन्तु नहीं लांघी कभी भी
मर्यादाओं की दहलीज
नही तोड़ी स्त्री होने की
बंदिशे
अशोक वृक्षों के साथ माधवी
लताओं ने
सहेजा हर वक्त
ओस बिन्दुओं के रूप में निरन्तर
बहते उनके आँसू
किन्तु अब तो राम राजा हैं
वह कैसे आते लेने
दसकंधर की लंका में बलात्
रखी गई सीता को
अब तो गुण दोष के विवेचन के
आधार पर होगा
सीता के स्त्रीत्व का न्याय
इसीलिए नजदीक
पहुंचने से पूर्व ही
गूंजता है राम के पुरुष का
स्वर
रोक दो वहीं पर पालकी को
और आने दो मेरे समीप
सीता को पैदल
कांप उठती है वैदेही
जवाब देने लगते हैं
उसके पांव
क्या यह वही पति हैं
जिन्होंने पिता के घर में
अग्नि के समक्ष दिये थे
मेरे सुरक्षा और संरक्षा के
वचन
मर्यादा को धारण करने वाले
आखिर क्या परखना चाहते हैं
एक बन्दी जीवन से मुक्त हुई
स्त्री में
क्या स्त्रियाँ भरोसे के योग्य
नही होती
या फिर पुरुषत्व की
हुंकार में
गायब हो जाती है
चाहत और प्रेम
ठण्डा पड़ जाता है
पति-मिलन का सम्पूर्ण
उत्साह
और पेश हो जाती है
एक पत्नी राजा के समक्ष
युद्ध विजित
बन्दिनी सरीखी
पर एक प्रश्न कुरेदता है
उन्हे बार बार
आखिर स्त्री ही क्यों
घोषित की जाती है
हर बार अपराधिनी
जबकि पुरुष भी नही होता
कम अपराधी
देखा जाय तो वह पुरुष ही
होता है
जो करता है एक स्त्री को
बाध्य
बन्दी की तरह जीवन
जीने को
और उतावला रहता है
अपनी वासनाओं की
जकड़ में जकड़ने को
शायद वाल्मीकि लिखते
पुत्री की पीड़ा
किन्तु वे भी तो पुरुष थे
और उनकी कथा के नायक थे
राम
आखिर वे कैसे लिखते
राम के विरुद्ध
सीता का आक्रोश
वे क्यों दिखाते रावण के
चरित्र की वास्तविकता
जो राजा था
और ले जा सकता था
सीता को
बलात् अपने रनिवास
और कर सकता था
उनकी स्त्रीत्व का अपमान
पर रावण वीर योद्धा था,
उसने कभी भी नहीं किया
स्त्रीत्व का अतिक्रमण
इतिहास भले ही भुला दे
उसकी मर्यादा
आज उसी दशहरे की रात
फिर है कवि उदास
उस रावण के लिए
जिसकी मर्यादा
किसी मर्यादा पुरुषोत्तम से
नहीं थी कमतर
उदास हूँ मै भी
कि पिता होकर भी
वाल्मीकि नहीं लिख सके
अपनी पुत्री की दुःखद कहानी
और नहीं जुटा पाये
कहने का साहस
राम के समक्ष सीता के
ब्रण की कथा
जिसकी सुरक्षा राम से अधिक
रावण ने की
पर आज देखता है समाज
रावण का पुतला दहन
जो जलता आया है
सदियो से
किन्तु आज भी बना हुआ है
जीवित है
विचारकों के
और चिन्तको के मन में ।
Monday, 1 April 2019
****पहरुवे*****
वे जागते हैं
रात भर
क्योंकि वे पहरुवा है
उनके पास
सुरक्षा के लिए है
लाठी डण्डा और गड़ासा
इन्ही के सहारे
अकेले ही काट लेते
रात
और सुरक्षित रखते हैं
हमे सांगठनिक
लुटेरों से
यद्यपि आज वे भी
हो चुकें असुरक्षित
किन्तु उनका हौसला
आज भी
उन्हे बनाए हुए है
वक्त का पहरुवा