Sunday, 19 September 2021

ये जो कंगूरे

ये जो कंगूरे 
इतरा रहे हैं
खुद के रंग ओ रुआब पर
वे तही जानते
अपनी खूबसूरती का राज
जो बनी हुई है
नींव की ईटों के समर्पण की 
प्रवृति पर
पर कंगूरो की गर्जना के स्वर 
आज भी कराते हैं एहसास
अधिक समर्पण हमेशा
सही नहीं होता
जैसा कि नींव की ईटों ने
कर रखा है
यदि बनी रहती उनकी भी ऐठन 
पहले जैसी तो
कंगूरों का अप्तित्व दिखता
हिलता डुलते पेण्डुलम की तरह
और उनकी अकड़ छोड़ जाती 
कब की उनका साथ 
जिसके भरोसे वे गाँठते है
अपना रुआब I

Thursday, 16 September 2021

तुम्हारी आँखों में

तुम्हारी आँखों में तैरते हैं
बहुत से हसीन सपने
बहुत सी अनछुई स्मृतियाँ
बहुत से सहमें हुए एहसास
और सामाजिक सरोकारों से सम्बन्धित 
बहुत सम्भावनाएं
जो कुरेदते हैं
तुम्हारी चेतना और अन्तःकरण को
फिर भी तुम बोलते हो
नहीं फटकते सपने मेरे पास 
मेरी आंखों की पुतरियों में
नींद के अतिरिक्त नहीं होती
किसी वस्तु के लिए कोई जगह 
शायद तुम भूल जाते हो
तुम्हारा एक झूठ
घोषित कर देगा तुम्हारे चरित्र को 
दोयम दर्जे का

Monday, 6 September 2021

यार तुम डरते हो

वे डरते हैं
शब्दो के तीखेपन से
जैसे डरता है
मेमना
डरता है भेड़िया
और डरता है 
बनराज
वन में बढ रही 
आवाजाही से
वृक्षो की कटान से
वीरान होते 
वन
गाद से खत्म होती 
नदी
विकास से आस्तित्व 
खोते पहाड़
कंकरीट के फैलते जंगलों से
उजड़ती धरती
वे भी डरते हैं
शब्दों के तीखेपन से

वे डरते हैं

वे डरते हैं
शब्दो के तीखेपन से
जैसे डरता है
मेमना
डरता है भेड़िया
और डरता है 
बनराज
वन में बढ रही 
आवाजाही से
वृक्षो की कटान से
वीरान होते 
वन
गाद से खत्म होती 
नदी
विकास से आस्तित्व 
खोते पहाड़
कंकरीट के फैलते जंगलों से
उजड़ती धरती
वे भी डरते हैं
शब्दों के तीखेपन से