अमराइयों के संग
बसन्त झूम रहा
पिक शुक के
कलरव बीच
दिनमान दमकता
हूक सी उठ रही है
फिज़ाओ में
मौसम की बूंदाबांदी मे
चन्दन सा महक रहा
धरती अम्बर के रत्न सा
जलज दहक रहा
अरिदल के उर में
शूल सा सालता
छल दम्भ द्वेष पाखण्ड को
निज पौरूष से जीतता
अमराइयों के संग
कोकिल सा कुहुक रहा
जीवन की अभिलाषाओं में
चम्पक के फूलों सा
कविता के साथ ढुरक रहा
अनवरत
दर्द के अनछुए पहलुओं की
कुरदन से
अन्तर्मन उसका कसक रहा
Monday, 21 October 2019
****अमराइयों के संग****
Tuesday, 15 October 2019
****कुछ लोग****
कुछ लोग रचाते हैं स्वांग
दिखावे के लिए
कुछ लोग करते है बखान
कार्य की गुणवत्ता का
कुछ लोग पालते है ख्वाब
भूमि पूजन का
कुछ लोग मान लेते है
फोटो और सेल्फियों से ही
खुद को बड़ा
पर कुछ है जो
इन सब से अलग रहकर
करते हैं कार्य
और हो जाते हैं महान
कुएं के पास दिखते
यह लोग किसी सेल्फी/ तश्वीर
के लालच में नही खड़े
बल्कि कुआँ जियाओ
जीवन बचाओ
अभियान को गति देने को
उतावले नन्हे शिल्पी हैं
जो गुरुओं के साथ
डटे हुए है कर्तव्य पथ पर
लगातार
बड़प्पन !
कोई स्टेज शो नहीं होता
जिसे साधा जा सके
मंचन के द्वारा
न ही जबरदस्ती थोपने की
वस्तु ही है
बल्कि यह !
मानवजनित मानवीय संवेदनाओं का
संगठित रूप हैं
जिसे रखना पड़ता है
संभालकर
यह कोई आसान नहीं होता
न ही सबके वश में होता है
क्योंकि यह मात्र लफ्जो की
जुगुलबन्दी नहीं होता है
अपितु कार्य में विश्वास का
दूसरा नाम है
जिसे यह लड़के कर रहें है
मिलकर एत्मिनान के साथ साकार
Sunday, 13 October 2019
****उनकी याद****
कल की तरह ही
आज भी
जेहन में बनी हुई है
तरोताजा
श्वास प्रच्छवास के सापेक्ष
जीवन रस सी
आबाध उनकी याद
कलकल झरते झरने की तरह
समय के थपेड़ो से
अनछुई,
अनबुझी,
अनभिज्ञ,
और अंजान
अब भी खड़ी है
अपने उसी अनोखे
अंदाज में
समय के बीजशब्द सी
चाहारदीवारी से
लुकती, छिपती,
और अनजाने भय से
सहमी हुई
स्मृतियों के सहारे
आज भी बनी हुई है
उनकी याद
पक्ष के प्रतिपक्ष की तरह ।
धुनों में समाये
गीत की तरह
अजस्र रस के साथ
अनायास
उपस्थित हो जाती है
बुझे हुए दीपक की दीप्ति सी
दमकती
उनकी याद
आ जाती है
क्षण क्षण जीवन के पास
चांदनी में नहाती धरती की तरह
उम्मीदों के दरख्तों सी
बनाने हृदय के पास
घास फूस के कोटर
समय के असमान रूख के
खिलाफ
भरती हूंकार
सघन स्वप्नों के मध्य
दिलाती विश्वास
छा जाती है बदली सी
मानस के पास
बसती है उनकी याद
रात रानी की तरह
Wednesday, 2 October 2019
****उम्मीदों के साफे****
उम्मीदों के साफे
माथ पर बांधे
तुम करते रहे जयघोष
ललकार की तर्ज पर
भरते रहे हुंकार
खून पसीने के व्यवहार को
उनका समझते रहे
उपकार
वे ऊँघते रहे
स्वप्नों के स्यापों के साथ
उनकी हसरत थी
पुनः देखने की
खेत में खड़ी फसल की
पकी बालियां
पर अफसोस !
ठहर नहीं सका
सुनहरे स्वप्नों के समक्ष
उम्मीद के साफे
माथ पर बांधे
तुम गाते रहे जयगान
लुटती रही चौराहों पर
लाज की लाज
दो टूक आंखों से
वे देखते रहे
जिन्हे उम्मीद थी
रहनुमाओं के रहमो
करम की
वे खड़े बेशर्म से
मुस्कुराते रहे
हो रहा था छिन्न भिन्न
आधारहीन सपना
इसमे दोष सिर्फ उनका ही नही था
तुम भी शरीक थे
बहशी भीड़ के अंग की तरह
क्योंकि तुम्हारे शौक भी पल रहे थे
अनाम स्वप्नों से
बोलता था जो वह
आम को इमली
तुम भी बोलते और
समझते रहे
आम को ही इमली
उम्मीदों के साफों की तरह