Wednesday, 29 May 2019

****वो जो बदल रहा था****

वो जो बदल रहा था
गिरते और चढते पारे सा
अपना मिजाज़
और हंसे जा रहा था लगातार बनावटी हंसी
कौन था

वो जो कर रहा था
निगहबानी
उनकी ही शर्तो पर
एक अनाम मौन के साथ
कौन था

वो जो करता था
उजासियों को भी बदनाम
अपनी ही नादानियों पर
थामें हुए था ढेसर सहारा
कौन था

वो जो बजा रहा था
अपने ही अंदाज में
अपने शातिर दिमाग की ताली
कर रहा था खुराफात की जुगाली
कौन था

वो जो बदल रहा था
समझ को नासमझी में
अपने ही जाल में खुद को उलझा रहा था
बिन बात की बात बना रहा था
आखिर कौन था

वो जो दरख्तों सा
एक के बाद एक बिखरता जा रहा था
छिन्न भिन्न भाल मस्तक हो रहा था
फिर दुहाई उसी की दे रहा था
कौन था

Thursday, 9 May 2019

****इन दिनों*****


इन दिनों
नहीं दीखते पहाड़ों के
आसपास
जंगली जीवों के समूह
ना ही दिखाई जाती हैं
समाचार चैनलों में
उनकी क्रान्तिकारी आवाजें

इन दिनों
सत्ता के दलालों द्वारा
फोड़े जा रहें हैं
पहाड़ों के माथे
और बिगाड़ा जा रहा है
उनका स्वरूप
और साधे जा रहें हैं
कुत्सित स्वार्थ
जिन्हे पुनः साध पाना जीवन के साधने से भी हो गया है दुष्कर

इन दिनों
कलम के सिपाहियों द्वारा बेच दी गई हैं कलमें 
चित्रकारों ने प्रतिभा की धनी
कूंचियां
और रंगकर्मियों ने बेच दी है
रद्दी के भाव अभिनय की अपनी सहज वृत्तियां
जिनसे नही की जा सकतीं सत्य के अन्वेषण की सम्भावनाएं

इन दिनों
तिलिस्मी दास्तानों के
सिखाई जा रहीं हैं
हकीकत को प्रभावित करने
युक्तियां
और ठगे जा रहें जीवन मूल्य
जिन्हे चाहकर रोक पाना लगभग हो गया है असंभव

इन दिनों
बढ़ रही आतिशी तपिश
कोहरे और धुंध की हो रही है
पौ बारह
आशाओं की उम्मीदें भी
अब नही रोक सकतीं
ध्वस्त होते पहाड़ो का जीवन

इन दिनों
पहाड़ो से दरक रहें हैं
रिश्तों के परिदृश्य
आशाओं प्रत्यासाओं का गारा  भी
नहीं रख सकता जिन्हे महफूज
इन दिनों
विलुप्त हो रही तितलियां और छोटे कीट
बेदम हो रहा है
सम्पूर्ण वातावरण इन्फ्रारेजों के प्रभाव से
बावजूद इसके मौन घारण किये हुए हैं सारे पक्ष
और गढा जा रहा है
विकास कें नाम पर
जोरों से बिनाश का वितान

Friday, 3 May 2019

****उम्मीद की धुंधली किरण*****

उम्मीद की धुंधली
किरण के साथ
वे कल की तरह आज भी
खड़े हैं हांसिये पर
अब भी सहेजे हुए हैं
चिरंतन की तरह निरन्तर को
तमाम वंदिशों के बाद भी
वे संजोये हुए हैं
कुछ कर गुजरने का माद्दा
यद्यपि उन्हे मालूम हैं
हौंसलों से ज्यादा जरूरी है
भूख के लिए रोटी
इसीलिए बार बार की
चेतावनियों के बाद भी
अनायास ही गूंज उठती है
सनसनाती हुंकार
जिससे हिल उठती हैं
आज भी
सजे हुए कंगूरों की चूले
जो उन्हें बाध्य करती है
हांसिये की ओर देखने के लिए
शायद यही भय
उन्हें करता है
विवश
हासिये पर खड़े लोगों के
पक्ष में
बोलने के लिए
और ना चाहते हुए भी
उन्हे बोलना पड़ता है
उपेक्षित लोगों के पक्ष में