Saturday, 29 July 2017

*****भोथरे उपाय*****

कवि !
तुम इतना डरे हुए
क्यों हो ?
कही तुमने जुर्म के
खिलाफ
कविता तो नहीं
लिख दी
कही भदेश भाषा के
अनगढ़ शब्दों को तो नहीं
पिरो दिये
जिसके कारण सारे गिद्ध
तुम्हे नोच खाने को
उतावले हैं
पर कवि तुम डरना
नहीं
इन बेइमान गिद्धो से
आज तक इन्होंने ही
रोक रखी थी
मानव बनने की
राह
और जब तुम जैसा
निर्भीक कवि
इन्हे चुनौती दे रहा है
ये डराने के सारे
भोथरे
उपाय कर रहे हैं

Wednesday, 26 July 2017

*****उनकी मंशा है*****

उनकी मंशा है
मठा डाल
कुशों की भांति
जड़ो को नष्ट करने की
इसीलिए वे ढोते हैं
मटकियों में मठा
और नापते है हर दफा
मटकी की सतह
वे बचाये रखना चाहते हैं
मठा और जड़ के बीच की
वैमनस्यता
जिससे वेे दे सकें
कार्य को मंशानुरूप
अंजाम
उन्हे तुमसे भी नफ़रत है
कुशों की भांति
क्योंकि वे कुश ही थे
जो बार बार फेर देते थे
इरादों पर पानी
और भरते थे
हा से अहा तक की
हुंकार
जिसकी गर्जन से हर बार
पड़ता है
उन्हें सहमना
जो खिलाफ था
उनकी फितरत के
इसीलिए वे नष्ट कर देना
चाहते हैं
सदा सदा के लिए
कुशों की जड़ों सा
तुम्हारी जड़ों को
जिससे रोका जा सके
तुम्हारी गति
और तुम्हारा वेग

***** वे तुमसे छीन लेना चाहते हैं*****

वे तुमसेे छीन लेना
चाहते है
तुम्हारी आजादी
काट देना चाहते हैं
तुम्हारे उठे हुए हांथ
खड़ा कर देना चाहते हैं
खौफ का जिन्न
इसीलिए करना चाहते हैं
शक्ति की नुमाइस
उत्पन्न कर सकें जिससे
एक अनाम डर
आड़ में जिसकी तोपी
जा सकें
अनगिन कायराना हक़ीकतें
वे मौन कर देना चाहते हैं
हलक की आवाज
बांध देना चाहते हैं
तुम्हारी जिह्वा
जिससे बड़ी सहजता से
ठहराया जा सके तुम्हे
गुनहगार
वे खोद देना चाहते है
एक अलंघनीय खाई
जिसे लांघ सकना हो जाये
लगभग असम्भव
ऊँची दीर्घा पर खड़े हो वे
करना चाहते है
घोषणा बतौर हाकिम
उनकी बनाई परिखाओं को
लांघना
उन्हे बर्दास्त नही
वे बना देना चाहते हैं
पीढियों को गुलाम
जिन्हे प्रयोग किया जा सके
मशीनों की भांति
हांका जा सके पशुओं की तरह
लेकिन वे भूल जाते हैं
इतिहास के क्रूर पन्नों को
जिन्होंने कभी नहीं बख्शा
अपने समय में नायकत्व का दंभ
भरने वाले
शक्ति में अंधे पड़ चुके
गंधाते घमण्ड को

Friday, 14 July 2017

*****फिर से*****

मै जानता हूं
पेड़ों की शाखाएं
जो नये पत्तो संग
मनाती हैं उत्सव
मधुर मधुप की
थाप पर करती है
शास्त्रीय नृत्य
और उनके साथ ही
फिजाओ' में घोलती है
बसंत
खुशियों के बीच झूमते
वृक्ष नदी और पहाड़
आज भी परेशान हैं
टूटन और खत्म होती
प्रजातियों के
रिसते जख्मों से
यद्यपि कारवां निकल चुका है
बहुत आगे
किन्तु जख्म
हरे होने पर फिर से
आमादा हैं