शोषक शोषित
जग के भाग दो
नींव खड़ी अस्थि-पंजर के सिर
कांकर पाथर सा
उसको खरीदता मनुष्य
सहज मूल्य
मन में उठती बार बार
कहानी उसकी एक
सुख दु:ख सहता
निज फौलाद से वक्ष
अस्थि चूर्णों से निर्मित
विश्व सदन,
उद्यत रहती जिस पर
प्रतिक्षण पूँजी की तीक्ष्ण धार
धूल धूसरित
कंटकों से शोभित
उसका जीवन पथ,
निरन्तरता के ले स्वप्न अखण्ड ,
घायल पगों की
रक्त से रंजित रज
धोती सदा वह अश्रुधार
मायूसी का कोई
कारण अन्य नही तू समझ
मेरे भी दिल में
उठती है लहू की
लहरें उन्मादी
मन मे भरी टीस भारी
तन में चुभता है
कंटक सा कोई भयंकर
सिहर उठती पीड़ा
चुभन बन
उफ यह भयंकर दर्द!
उमड़ पड़ता स्मृति के द्वार
कह जाता एकबयक
स्वार्थ की बातें अनेक
चूस लेता नादान शिशु सा
माँ का रक्त दूध मान
और भुला देता
उसको भी बड़ा होने पर
पाला था जिसने
लाड़ प्यार से उसको
हर क्षण धन संचय में
कोल्हू में तेली के बैल सा
वह लगा रहता
घोलते हुए जीवन में
विशाक्त कर्मों को सत्व
उच्छवास भरती
उसकी सूनी सांसें
छीनने को भूख प्यास उसकी
कल उमड़ी थी वह
अश्कों की नदी बनकर
पेड़ पर देखा जब
लटकी हुई मानव की
मृत लाश
उतारा था उसको सदुःख
अभी भी नम थी
जिसकी आँखे
बह रही थी जिनसे
अश्रुधार निरन्तर
नज़रें गड़ा दी थी
अमीरों की बेशर्मी ने
उसकी जमीं पर
उतावली हो
लूट लिया जिसने
उसका स्वत्व
एहसानो की लम्बी फेहरिस्त
लटक रही थी
उसकी रूह के द्वार
तनिक भी न
उस पर उसने
रहम खाया
देखकर बच्चों की भी चीख
खाली करवा लिया
एक झटके में माकान सारा
लगी न तनिक भी
उसको देर
दरवानों के बल पर
दाँत निपोरे हँस रहा था वह
ज़हर बुझे वचनो में
कह रहा था
ठेका ले रखा हूँ
क्या मैने सारे जग का?
धिक्कार है !
ऐसे नर जीवन को
महास्वार्थ मे ही
जो लिपटा हो
मिथ्या को जो न
त्याग सका
ऐसा मानव दुनिया में
क्या कर सकता
बुद्धिजीवी होने के नाते
उसे मानव मैं
कैसे कह सकता
शोषण ही जिसके हथियार
उसे भला किसकी फिक्र
देखे मैने दुनिया में
एक से बढ़कर एक
ऐसे लम्पट धूर्त अनेक ।