45).
मैं किसान हूँ / प्रद्युम्न कुमार सिंह
मैं किसान हूँ
सदा उम्मीदों के
बीज बोता हूँ
भूमि कैसी भी हो
पथरीली हो,
बंजर हो,
ऊसर हो
या फिर दलदली हो
मैं उस पर
एक उम्मीद रोपता हूँ
बादलों की बेरूखी हो
या फिर अपनों की
बेगैरियत
मैं खामोश रहते हुए
अपनी भूमि जोतता हूँ
हरियाली देख झूमता हूँ
नुकसान होते हुए
देखकर भी
विचलन से दूर रह
आशाओं भरी
उम्मीदो के सहारे
जिन्दगी को जीता हूँ
साहब मैं एक किसान हूँ
जब तक मेरी फसलें
रहती हैं असुरक्षित
मैं चैन से नही सोता हूँ
तूफान हो,
ओले पड़े
या फिर भीषण गर्मी की
लुआर हो
मैं उद्यत रहता हूँ
सदा उनसे जूझने के लिए
क्योंकि मैं बोता हूँ
धरती के सीने को चीरकर
उसे शस्य श्यामला
बनाने वाले उन्नत बीजों को
46).
उस दिन / प्रद्युम्न कुमार सिंह
उस दिन
मैं देखता रहा था
तुम्हें इकटक
क्योंकि मुझे उम्मीद थी
तुम उठ आओगे
अचानक
अपने वियावन से
उभरते हुए दृश्य चित्रों की तरह
पर ऐसा नहीं
हो सका
क्योंकि तुम कोई
दृश्य नहीं थे
जो उभर आते
आँखों की कोरों के बीच
अनायास
मैं प्रतीक्षा करता रहा था
बहुत क्षणों तक
कि तुम सुन सको
शायद मेरी आवाज में
बोले गये शब्दों को
पर तुम नहीं सुन सके
क्योंकि तुम कोई
श्रव्ययन्त्र नहीं थे
जो सुनते बोले हुए
शब्दों को
मेरी सोच और विश्वास
दोनो परिवर्तित हो
चुके थे जड़ में
जिनमे देखने और सुनने
की क्षमता पूरी तरह से
खत्म हो चुकी थी
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◆कविता-45,46
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