Saturday, 25 December 2021

कृषक पर आधारितगोलेन्द्र ग्यान के पेज पर प्रकाशित दो रचनाएं

45).
मैं किसान हूँ / प्रद्युम्न कुमार सिंह

मैं किसान हूँ
सदा उम्मीदों के 
बीज बोता हूँ
भूमि कैसी भी हो
पथरीली हो,
बंजर हो, 
ऊसर हो 
या फिर दलदली हो
मैं उस पर 
एक उम्मीद रोपता हूँ
बादलों की बेरूखी हो
या फिर अपनों की 
बेगैरियत
मैं खामोश रहते हुए
अपनी भूमि जोतता हूँ
हरियाली देख झूमता हूँ
नुकसान होते हुए 
देखकर भी
विचलन से दूर रह
आशाओं भरी 
उम्मीदो के सहारे 
जिन्दगी को जीता हूँ
साहब मैं एक किसान हूँ
जब तक मेरी फसलें 
रहती हैं असुरक्षित 
मैं चैन से नही सोता हूँ 
तूफान हो, 
ओले पड़े 
या फिर भीषण गर्मी की 
लुआर हो
मैं उद्यत रहता हूँ 
सदा उनसे जूझने के लिए
क्योंकि मैं बोता हूँ
धरती के सीने को चीरकर
उसे शस्य श्यामला 
बनाने वाले उन्नत बीजों को

46).
उस दिन / प्रद्युम्न कुमार सिंह

उस दिन
मैं देखता रहा था
तुम्हें इकटक
क्योंकि मुझे उम्मीद थी
तुम उठ आओगे
अचानक
अपने वियावन से
उभरते हुए दृश्य चित्रों की तरह
पर ऐसा नहीं
हो सका
क्योंकि तुम कोई 
दृश्य नहीं थे
जो उभर आते
आँखों की कोरों के बीच
अनायास

मैं प्रतीक्षा करता रहा था
बहुत क्षणों तक
कि तुम सुन सको
शायद मेरी आवाज में
बोले गये शब्दों को
पर तुम नहीं सुन सके
क्योंकि तुम कोई 
श्रव्ययन्त्र नहीं थे
जो सुनते बोले हुए 
शब्दों को
मेरी सोच और विश्वास
दोनो परिवर्तित हो
चुके थे जड़ में
जिनमे देखने और सुनने
की क्षमता पूरी तरह से 
खत्म हो चुकी थी

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◆कविता-45,46

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Monday, 13 December 2021

यह आवश्यक तो नही

यह आवश्यक तो नही 
जिससे मुहब्बत हो 
उससे बयाँ ही की जाय
एक झलक भी बुन देती है 
हजार ताने बाने 
और एक कसक सताती रहती है
ओझल हो हो

ठगे जाते है

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
कभी नहीं कह पाते वे 
अपनी पीड़ा को
क्योंकि उन्हे विश्वास होता है
एक दिन समझ जायेंगे लोग उन्हे
और वे चुप रहते हैं

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
क्योंकि वे मानते हैं 
यह अन्तिम ठगी है
इसीलिए वे सह लेते हैं
उसे हंसते हुए
और आगे बढ़ जाते हैं
सकारात्मकता की प्रत्यासा में

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
क्योंकि उनको उम्मीद आशावान होती है
ढोये जाते रिश्तों में बची हुई
मानवीयता के प्रति
और वे सहज हो जाते हैं
आश्वस्तियों के सहारे 

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
फिर भी वे थामे रहते हैं अन्त तक 
धूमिल पड़ती पगडण्डियों की बाहें
क्योंकि उनका मन अब भी होता है
आइने जैसा साफ सुथरा
जिसमे आकर बाधाएं 
खुद ब खुद होती है शर्मिंदा
जबकि जश्न मनाता है 
ठग और उनका पूरा गिरोह 
अपनी खोखली जीत पर
जिसे बहुत कम ही लोग
पाते हैं समझ।

ठगे जाते हैं
शातिरों के हाथ सदैव से
मासूम लोग 
वे स्वीकार लेते हैं देर सबेर 
अपनी ठगी को
और चल पड़ते हैं 
अनाहत धारा सरीखे 
अप्रतिहत शक्ति के साथ
जबकि ठग और उनका कुनबा
भोगता है अपना द्वारा कृत 
कृत्यों का परिणाम
और चाहकर भी नहीं कह पाता
किसी से भी।